क्रांतिकारी संत - कबीर!

      ऊँचे कुल क्या जन्म लिया, जो करनी ऊँची न होय!                                                                                          नहाएं धोएं क्या होय, जो मन मैला समाय!!

      मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले ना बारंबार!  
      तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहूरी न लागे डारि!!

     ऐसी अनमोल वाणी से सत्कर्म - जनजागृति की ज्योत जलाने वाले, खुद को हिन्दू या मुस्लिम मानने के बजाय "इन्सान" मानने वाले एक क्रांतिकारी - प्रबोधनकारी ऐतिहासिक संत पुरुष थे संत कबीर!


     गुरु रविदास और गुरू नानक ये संत कबीर के समकालीन थे!  इन सभी संतों ने उन दिनों जनप्रबोधन का काम बड़े पैमाने पर किया हैं!  समता, स्वातंत्र्य और विश्व बंधुता तथा चिकित्सक इन बातों को इन्होंने दिए हुए  महत्व को ध्यान में रखकर हमें तथागत गोतम बुद्ध के विचारोंका एहसास होता है!  विशेषत: सभी क्रांतिकारी संतों ने तथागत बुद्ध की तरह मानवीय "मन" को ही खास महत्व दिया हुआ नजर आता हैं!  संत कबीर ने भी बुद्ध की तरह ही अज्ञानता नष्ट कर, ज्ञानी बनकर, भाईचारा - प्रेम को वास्तविक जीवन में जीने के लिए ही जन जागृति का काम किया है,  जो कबीर के "दोहे" कहकर  सुप्रसिद्ध हुए हैं!  जैसा कि,  पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा पंडित भया न कोई!  ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय!!  याने की सिर्फ़ किताबों को पढ़कर ही कोई ज्ञानी नहीं बनता,  जिन्हें प्यार के अढ़ाई अक्षर का महत्व समझ में आता है वही सच्चा ज्ञानी होता है!  धर्म ग्रंथ की आड में जो धर्म पंडीत कहलाने वालें (कुछ पाखंडी) श्रद्धालु लोगों को ठगते हैं, तब ऐसे पीड़ितों को अंधश्रद्धा से दूर करने के लिए कबीर किसी और काल्पनिक बातों पर भरोसा न करते हुए स्वयंपर ही निर्भर रहने को  कहते हैं!  इतनाही नहीं वें धर्मपंडितों को भी आवाहन करते हुए कहते हैं कि, "मेरी रचना याने निर्वाण पद के विचार हैं,  जिसमें हिम्मत होगी वोही इन पदों (दोहा) का अर्थ समझेगा और उसे जीवन में प्रत्यक्ष आचरण में लाकर वह विजयी होगा और वही व्यक्ति निर्वाणपद तक पहुंचा हुआ हैं ऐसा जाना जाएगा!  इस तरह से शुद्ध आचरण को महत्त्व देने वाले कबीर जी के दोहे  समाज को सच्चाई की राह पर चलने पर विचार करने वाले प्रेरणादाई और बहुजन - सर्व जन हित और सुख वाले ही साबित होते है!

     15 वीं सदी में जन्मे ऐसे महान क्रांतिकारी संत को अपने भारतीय राज्यघटना के प्रमुख शिल्पकार महामानव विश्व भूषण बोधिसत्व डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने बुध्द और फुले कि तरह संत कबीर को भी अपना गुरु माना है!   दीर्घायु तक जन - जागरण करने वाले इस सम्यक संत "कबीर के दोहे" उनके बाद (इतने सालों के बाद भी) आज भी करोड़ों घर-घर में गूंज रहे हैं!

     ज्येष्ठ पौर्णिमा को उत्तर प्रदेश के वाराणसी - काशी में जन्मे पिता - नीरू और मां - नीमा (इन कपड़े सीने वालों) के घर पले बड़े कबीर पर बचपन से ही हिंदू और मुस्लिम समाज के संस्कार थे,  इसीलिए भारतीय समाज की संस्कृती तथा कुप्रथा और जातीयता का अनुभव कबीर को बचपन सेही मिला था!  ज्यादा पढ़े - लिखे न होने के बावजूद भी कबीरने ऐसे दोहे रचें जो कर्मकांड के खिलाफ हर इंसान को सोचने पर मजबूर करके,  उसके जेहन मे जागृति की मशाल जला देते है!   जैसे;  

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात! 
एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात!!

कबीर, पत्थर पूजें हरि मिले तो मैं पुँजू पहार!  
तातें तो चक्की भली, पीस खाए संसार!

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान!  
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान!! 


     उनकी काव्यप्रतिभा अद्भुत थी, इन प्रतिभा द्वारा लिखें गये दोहे द्वारा ही कबीर जी ने उनको अभिप्रेत ऐसा सर्व समाज कल्याणकारी, मानव - धर्म लोगों को बताया! जो आज भी आवश्यक लगता हैं!  उस समय धार्मिक कर्मकांड, पूजा - पाठ और कुरिति परंपरा आदि के आड़ में चले अंधश्रद्धा पर कबीर ने प्रहार किया और हिंदू मुस्लिम समाज में एकता लानेका हरबार प्रयास किया!  अपनी चिकित्सक - विज्ञान वादी ऐसी क्रांतिकारी वाणी से सामाजिक बुराई पर वे निरंतर प्रहार करते रहें!  अंधभक्ती को और पाखंडियों को विरोध करने के कारण उन्हें कई बार संकटों का सामना करना पड़ा मगर संत कबीर ने सच्ची बात करने में कभी कोई डर महसुस नहीं किया!  ऐसे निडर, समाज सुधारक, संत को विनम्र अभिवादन!